प्रेमा भाग 6
पूर्णा ने गजरा पहिन तो लिया। मगेर रात भर उसकी ऑंखों में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी। कि अमृतराय ने उसे गज़रा क्यों दिया। उसे ऐसा मालूम होता था कि पंडित बसंतकुमार उसकी तरफ बहुत क्रोध से देख रहे है। उसने चाहा कि गजरा उतार कर फेंक दूँ मगर नहीं मालूम क्यों उसके हाथ कॉंपने लगे। सारी रात उसने ऑंखों में काटी। प्रभात हुआ। अभी सूर्य भगवान ने,भी कृपा न की थी कि पंडाइन और चौबाइन और बाबू कमलाप्रसाद की बृद्ध महराजिन और पड़ोस की सेठानी जी कई दूसरी औरतों के साथ पूर्णा के मकान में आ उपस्थित हुई। उसने बड़े आदर से सबको बिठाया, सबके पैर छुएं उसके बाद यह पंचायत होने लगी।
पंडाइन (जो बुढ़ापे की बजह से सूखकर छोहारे की तरह हो गयी थी)-क्यों दुलहिन, पंडित जी को गंगालाभ हुए कितने दिन बीते?
पूर्णा-(डरते-डरते) पॉच महीने से कुछ अधिक हुआ होगा।
पंडाइन-और अभी से तुम सबके घर आने-जाने लगीं। क्या नाम कि कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं। उनक क्वारी कन्या के पास दिन भर बैठी रहीं। भला सोचो ओ तुमने कोई अच्छा काम किया। क्या नाम कि तुम्हारा और उनका अब क्या साथ। जब वह तुम्हारी सखी थीं, तब थीं। अब तो तुम विधवा हो गयीं। तुमको कम से कम साल भर तक घर से बाहर पॉव न निकालना चाहिए। तुम्हारे लिए साल भर तक हॅसना-बोलना मना हैं हम यह नहीं कहते कि तुम दर्शन को न जाव या स्नान को न जाव। स्नान-पूजा तो तुम्हारा धर्म ही है। हॉ, किसी सोहागिन या किसी क्वारी कन्या पर तुमको अपनी छाया नही डालनी चाहिए।
पंडाइन चुप हुई तो महाराजिन टुइयॉ की तरह चहकने लगीं-क्या बतलाऊँ, बड़ी सरकार और दुलाहिन दोनों लहू का धूंट पीकर रह गई। ईश्वर जाने बड़ी सरकार तो बिलख-बिलख रो रही थीं कि एक तो बेचारी लड़की के यों हर जान के लाले पड़े है। दूसरी अब रॉँड बेवा के साथ उठना-बैठना है। नहीं मालूम नारायण क्या करनेवाले है। छोटी सर्कार मारे क्रोध के कॉप रही थी। ऑखों से ज्वाला निकल रही थी। बारे मैनें उनको समझाया कि आज जाने दीजिए वह बेचारी तो अभी बच्चा है। खोटे-खरे का मर्म क्या जाने। सरकार का बेटा जिये, जब बहुत समझाया तब जाके मानीं। नहीं तो कहती थीं मैं अभी जाकर खड़े-खड़े निकाल देती हूँ। सो बेटा, अब तुम सोहागिनो के साथ बैठने योग्य नहीं रहीं। अरे ईश्वर ने तो तुम पर विपत्ति डाल दी। जब अपना प्राणप्रिय ही न रहा तो अब कैसा हँसना-बोलना। अब तो तुम्हारा धर्म यही है कि चुपचाप अपने घर मे पड़ी रहो। जो कुछ रुखा-सूखा मिले खावो पियो। और सर्कार का बेटा जिये, जाँह तक हो सके, धर्म के काम करो।
महाराजिन के चुप होते ही चौबाइन गरजने लगीं। यह एक मोटी भदेसिल और अधेड़ औरत थी—भला इनसे पूछा कि अभी तुम्हारे दुलहे को उठे पॉँच महीने भी न बीते, अभी से तुम कंधी-चोटी करने लगीं। क्या कि तुम अब विधवा हो गई। तुमको अब सिंगार-पेटार से क्या सरोकार ठहरा। क्या नाम कि मैंने हजारों औरतों को देखा है जो पति के मरने के बाद गहना-पाता नहीं पहनती। हँसना-बोलना तक छोड़ देती है। यह न कि आज तो सुहाग उठा और कल सिंगार-पटार होने लगा। मैं लल्लो-पत्तों की बात नहीं जानती। कहूँगी सच। चाहे किसी को तीता लगे या मीठा। बाबू अमृतराय का रोज-रोज आना ठीक नहीं है। है कि नही, सेठानी जी?
सेठानी जी बहुत मोटी थीं और भारी-भारी गहनों से लदी थी। मांस के लोथडे हडिडरयों से अलग होकर नीचे लटक रहे थे। इसकी भी एक बहू रॉँड़ हो गयी थी जिसका जीवन इसने व्यर्थ कर रखा था। इसका स्वभाव था कि बात करते समय हाथों को मटकाया करती थी। महाराजिन की बात सुनकर—‘जो सच बात होगी सब कोई कहेगा। इसमें किसी का क्या डर। भला किसी ने कभी रॉँड़ बेवा को भी माथे पर बिंदी देते देखा है। जब सोहाग उठ गया तो फिर सिंदूर कैसा। मेरी भी तो एक बहू विधवा है। मगर आज तक कभी मैंने उसको लाल साड़ी नहीं पहिनने दी। न जाने इन छोकरियों का जी कैसा है कि विधवा हो जाने पर भी सिंगार पर जी ललचाया करता है। अरे इनको चाहिए कि बाबा अब रॉँड हो गई। हमको निगोड़े सिंगार से क्या लेना।
महाराजिन—सरकार का बेटा जिये तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी जी। कल छोटी सरकार ने जो इनको मॉँग में सेंदूर लगाये देखा तो खड़ी ठक रह गयी। दॉँतों तले उंगली दबायी कि अभी तीन दिन की विधवा और यह सिगार। सो बेटा, अब तुमको समझ-बूझकर काम करना चाहिए। तुम अब बच्चा नहीं हो।
सेठानी—और क्या, चाहे बच्चा हो या बूढ़ी। जब बेराह चलेगी तो सब ही कहेंगे। चुप क्यों हो पंडाइन, इनके लिए अब कोई राह-बाट निकाल दो।
डाइन—जब यह अपने मन की होगयीं तो कोई क्या राह-बाट निकाले। इनको चाहिए कि ये अपने लंबेलंबे केश कटवा डाले। क्या नाम कि दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दे। कंधी-चोटी कभी न करें पान न खाये। रंगीन साड़ी न पहनें और जैसे संसार की विधवायें रहती है वैसे रहें।
चौबाइन—और बाबू अमृतराय से कह दें कि यहॉँ न आया करें। इस पर एक औरत ने जो गहने कपड़े से बहुत मालदार न जान पड़ती थी, कहा—चौबाइन यह सब तो तुम कह गयी मगर जो कहीं बाबू अमृतराय चिढ़ गये तो क्या तुम इस बेचारी का रोटी-कपड़ा चला दोगी? कोई विधवा हो गयी तो क्या अब अपना मुँह सी लें।
महराजिन—(हाथ चमकाकर) यह कौन बोला? ठसों। क्या ममता फड़कने लगी?
सेठानी—(हाथ मटकाकर) तुझे किसने बुलाया जो आ के बीच में बोल उठी। रॉँड़ तो हो गयी हो, काहे नहीं जा के बाजर में बैठती हो।
चौबाइन—जाने भी दो सेठानी जी, इस बौरी के मुँह क्या लगती हो।
सेठानी—(कड़ककर) इस मुई को यहॉँ किसने बुलाया। यह तो चाहती है जैसी मैं बेहयास हूँ वैसा हीसंसार हो जाय।
महराजिन—हम तो सीख दे रही थीं तो इसे क्यों बुरा लगा? यह कौन होती है बीच में बोलनेवाली?
चौबाइन—बहिन, उस कुटनी से नाहक बोलती हो। उसको तो अब कुटनापा करना है।
इस भांति कटूक्तियों द्वारा सीख देकर यह सब स्त्रियाँ यहा से पधारी। महराजिन भी मुंशी बदरीप्रदान के यहॉँ खाना पकाने गयीं। इनसे और छोटी सर्कार से बहुत बनती थी। वह इन पर बहुत विश्वास रखती थी। महराजिन ने जाते ही सारी कथा खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान की और छोटी सरकार ने भी इस बात को गॉँठ बॉँध लिया और प्रेमा को जलाने और सुलगाने के लिए उसे उत्तम समझकर उसके कमरे की तरफ चली।